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भारतीय रिफायनरी क्षेत्र का इतिहास और विकास
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भारतीय रिफायनरी क्षेत्र का इतिहास और विकास

    कच्चे तेल की खोज के बाद से भारतीय पेट्रोलियम रिफाइनिंग क्षेत्र ने एक लंबा सफर तय किया है और वर्ष 1901 में डिगबोई में पहली रिफायनरी स्थापित की गई थी। वर्ष 1947 तक, यह एकमात्र रिफायनरी थी जिसकी क्षमता 0.50 मिलियन मीट्रिक टन प्रति वर्ष (एमएमटीपीए) थी। एचपीसीएल की वर्तमान मुंबई रिफायनरी 1954 में ईएसएसओ द्वारा स्वतंत्रता के बाद स्थापित की जाने वाली पहली आधुनिक रिफायनरी थी, जिसके बाद मुंबई में बर्मा शेल और कैल्टेक्स (बीपीसीएल) और विशाखापत्तनम (एचपीसीएल) जैसी अन्य तेल रिफाइनरियों की स्थापना की गई थी। । तब से ही सरकारी, निजी क्षेत्र, संयुक्त उद्यमों द्वारा रिफाइनरियों की स्थापना की गई थी।  
           पिछले कुछ वर्षों में भारत ने रिफाइनिंग क्षेत्र में शानदार वृद्धि देखी है। 2001 में घाटे के परिदृश्य से, देश ने रिफायनरिंग में आत्मनिर्भरता हासिल की और आज देश गुणात्मक पेट्रोलियम उत्पादों का एक प्रमुख निर्यातक है। आज, भारत 248.9 एमएमटीपीए रिफायनिंग क्षमता वाला वैश्विक रिफाइनिंग हब है और संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और रूस के बाद दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश है। सार्वजनिक क्षेत्र में 18, संयुक्त उद्यम में 2 और निजी क्षेत्र में 3 रिफायनरियों सहित देश में कुल 23 रिफायनरियाँ हैं जो भौगोलिक रूप से अच्छी तरह से फैली हुई हैं और क्रॉस कंट्री पाइपलाइनों से जुड़ी हैं।
           सिंपल रिफायनरी कॉन्फिगेरेशन को 1950 के दशक में अपनाया गया था, जिसमें कच्चे तेल के आसवन, नेफ्था/केरोसीन/एटीएफ ट्रीटमेंट, नेफ्था को पेट्रोल में अपग्रेड करने के लिए उत्प्रेरक सुधार, द्वितीयक प्रसंस्करण विहीन, कम ऊर्जा रिकवरी और आंतरिक ईंधन के रूप में हाई सल्फर फ्यूल ऑयल शामिल हैं। रिफाइनरियों की स्थापना साठ के दशक में सरकार द्वारा की गई थी। उपक्रम उत्तर पूर्व और गुजरात बेसिन में उपलब्ध लो सल्फर ओरिजिन के स्वदेशी कच्चे तेल के प्रसंस्करण पर आधारित थे। भारतीय पीएसयू रिफाइनरियों ने अंतरराष्ट्रीय प्रवृत्ति से तालमेल करते हुए तथा उत्पाद आवश्यकताओं और गुणवत्ता के अनुसार अत्याधुनिक तकनीकों को अपनाना शुरू किया। लो वैल्यू स्ट्रीम्स को हाई वैल्यू मिडिल डिस्टीलेट्स में उन्नयन करने के लिए फ्लुइड कैटेलिटिक क्रैकिंग (एफसीसी) इकाइयों जैसी द्वितीयक प्रसंस्करण सुविधाओं को रिफाइनरियों में स्थापित किया गया था।   
           1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में भारतीय रिफायनरियों के कॉन्फिगेरेशन में एक बड़ा बदलाव आया। मध्यम डिस्टिलेट्स के अधिकतमकरण के साथ-साथ एफसीसी से हाइड्रोक्रैकिंग प्रक्रिया की ओर बदलाव और दोनों के संयोजन के साथ उत्पादों की बेहतर स्थिरता पर भी जोर दिया गया। देश में पहला हाइड्रोक्रैकिंग वर्ष 1993 में आईओसीएल की गुजरात रिफायनरी में चालू किया गया था। सभी नए ग्रासरूट स्तर की रिफायनरी ने हाइड्रोक्रैकिंग की स्थापना पर विचार करना शुरू कर दिया था। इससे रिफायनरी प्रतिष्ठानों के लिए निवेश आवश्यकताओं में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
           1990 के दशक के उत्तरार्ध में पर्यावरण संबंधी चिंताओं के कारण रिफायनरी कॉन्फीगेररेशन को उत्पाद की गुणवत्ता सुधार हेतु निर्धारित किया गया था। इनमें मिडिल डिस्टिलेट्स की बढ़ती मांग के साथ लेड फ्री गैसोलीन, लो सल्फर डीजल, फ्यूल ऑयल और गुणों में अन्य सुधार शामिल हैं। इसलिए निम्नलिखित को शामिल करने के लिए कॉन्फिगेरेसन को संशोधित किया गया था:
•    सतत उत्प्रेरक सुधार (सीसीआर)
•    हाइड्रोक्रेकर
•    लो सल्फर फ्यूल के उत्पादन के लिए हाइड्रोट्रीटिंग/हाइड्रोडेसुलिफ्यूरेशन सुविधाएं  और आंतरिक उपयोग के लिए फ्यूल ऑयल
•    एलपीजी अधिकतमकरण के लिए इंडमैक्स प्रौद्योगिकी 

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